Tuesday, 22 March 2011

युग परिवर्तन-कैसे और कब?

सभी एक स्वर से यह कह रहे हैं कि प्रस्तुत वेला युग परिवर्तन की हैं इन दिनों जो अनीति व अराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं का व्यापक बोल बाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है ऐसे ही समय में भगवान ''यदा-यदा हि धर्मस्य'' की प्रतिज्ञा के अनुसार असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लए कटिबद्ध हो ''संभवामि युगे युगे'' की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आते रहे हैं ।
ज्योतिर्विज्ञान प्रस्तुत समय को जो 1850 ईसवी सदी से आरम्भ होकर 2005 ईसवी सदी में समाप्त होगा- संधि काल, परिवर्तन काल, कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का काल मानता चला आया है । इसीलिए इस समय को युगसंधि की वेला कहा गया है । कुछ रुढ़िवादी पण्डितों के अनुसार नया युग आने में अभी 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है, किन्तु यह प्रतिपादन भ्रामक है, यह वास्तविक काल गणना करने पर पता चलता है । हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व से लेकर श्रीमद्भगवत गीता का उल्लेख कर परम पूज्य गुरुदेव ने इसमें यह प्रमाणित किया है कि वास्तविक काल गणना के अनुसार सतयुग का समय आ पहुँचा । हजार महायुगों का समय जहाँ ब्रह्मदेव के एक दिवस के बराबर हो व ऐसे ही हजार युगों के बराबर रात्रि हो, वहाँ समझा जा सकता है कि काल की गणना को समझने में विद्वत्जनों द्वारा कितनी त्रुटि की गयी है ।
परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि 1980 से 2000 व बाद का कुछ समय अनिष्ट को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली, देव शक्तियों के प्रबल पुरुषार्थ के प्रकटीकरण का समय है । जब भी ऐसा होता है, तब दैवी प्रकोप, विभीषिकाएँ, विनाशकारी घटनाक्रम, मनुष्य जाति पर संकटों के बादल के रूप में गहराने लगते हैं । मानवी र्दुबुद्धि को सुमति में, सदबुध्दि में बलात् बदलने हेतु किया गया अदृश्य स्तर का उसे एक उपक्रम भी समझा जा सकता है । ऐसे समय में मानसिक उन्माद, आत्म हत्यायें, युद्धोन्माद, स्थान-स्थान पर उभरते देखे जाते हैं, ऐसी व्याधियाँ फैलती दिखाई देती हैं जो कभी न देखी, सुनी गयीं किन्तु समय रहते ही यह सब ठीक होता चला जाता है ।
देखें तो, वस्तुतः विज्ञान के वरदानों ने मनुष्य को आज इतना कुछ दे दिया है कि सब कुछ आज उसकी मुठ्ठी में है । द्रुतगामी वाहनों ने जहाँ आज दुनिया को बहुत छोटी बना दिया है, वहाँ इसका एक बहुत बड़ा प्रभाव मानव की मानसिक शन्ति, पारिवारिक-दाम्पत्य-जीवन एवं सामाजिकता वाले पक्ष पर भी पड़ा है । विज्ञान ने वरदान के साथ प्रदूषण को बढ़ाकर ओजोन की परत को पतला कर परा बैंगनी किरणों तथा अन्यान्य कैंसर को जन्म देने वाले घातक रोगागुओं की पृथ्वी पर वर्षा का निमित्त भी स्वयं को बना लिया है । सात लाख मैगावाट अणु बमों की शक्ति के बराबर ऊर्जा प्रतिदिन पृथ्वी पर फेंकने वाला सूर्य इन दिनों कुपित है । सौरकलंक, सुर्य पर धब्बे बढ़ते चले जा रहे हैं । सूर्य ग्रहणों की एक श्रृंखला इस सदी के अन्त तक चलेगी, जिसका बड़ा प्रभाव जीव समुदाय पर पड़ने की सम्भावना है ।
परम पूज्य गुरुदेव एक दृष्टा, मनीषी, भविष्य-वक्ता थे । जो जो भी उनने 1940 से अब तक लिखा, समय-समय पर वह सब सही होता चला गया । इस खण्ड में उनने अतीन्द्रिय दृष्ट महायोगी श्री अरविन्द से लेकर, बरार के विद्वान ज्योतिषी श्री गोपीनाथ शास्त्री चुलैट, रोम्यां रोलां, भविष्य वक्ता व हस्त रेखा विद कीरो, महिला ज्योतिषी बोरिस्का, बाइबल की भविष्य वाणियाँ, नार्वे के प्रसिद्ध योगी आनन्दाचार्य, जीन डीक्सन, एण्डरसन गेरार्ड क्राइसे, चाल्र्स क्लार्क, प्रो. हटार, जूल वर्न, जार्ज बावेरी से लेकर कल्कि पुराण तथा आज के कम्प्यूटर युग में यूरोपिया द्वारा भविष्यवाणी करने वाले विद्वानों, एल्विनटाफरल, फ्रिटजाफ काप्रा, प्रो. हमीश मैकरे आदि का हवाला देते हुए, आने वाले दिनों के स्वरूप के विषय में लिखा है उज्ज्वल भविष्य के दृष्टा परम पूज्य गुरुदेव ने समय-समय पर कहा है कि स्रष्ट को सुव्यवस्था और सुन्दरता ही प्रिय है । संकटों की घड़ियाँ आसन्न दीखते हुए भी यह विश्वास नहीं छूटना चाहिए कि स्रष्टा अपनी इस अदभुद कलाकृति-विश्ववसुधा को, मानवी सत्ता को, सुरम्य वाटिका को विनाश के गर्त में गिराने से पहले ही बचा लेता व अपनी सक्रियता का परिचय देता है । परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार-युग परिवर्तन का उपक्रम रचने वाला पराक्रम करना ही इस युग के अवतार का प्रज्ञावतार का उद्देश्य है, यह भली भाँति आत्मसात होता चला जाता है, पूज्यवर की पंक्तियों को पढ़कर । पूज्यवर ने लिखा है कि ''अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे हैं, जैसे कि आज है । अवतारों ने लोक-चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है, जिससे अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने का उत्साह लगने वाली संभवनाएँ सरल होती प्रतीत हों । दिव्य चक्षु युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देख सकते हैं ।''
अपने 1990 के वसंत पर्व पर, महाकाल के संदेश में उनने प्रत्येक से प्रज्ञावतार के साथ साझेदारी करने की बात को, समय की सबसे बड़ी समझदारी बताया तथा लिखा कि अब सभी के मन में ऐसी उमंगें उठनी चाहिए कि युग परिवर्तन की महाक्रांति में उनकी कुछ सराहनीय भूमिका निभा सके ।
यह आमंत्रण सबके लिए है । ''इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य'' का उदघोष पूज्यवर ने आशवादिता की उमंगों को जिन्दा रखने के लिए दिया एवं उसी का सन्देश इस वाङ्मय में है॥

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