Tuesday, 22 March 2011

वेदमाता

वस्य वणर्स्य देवी तु वेदमाताऽथ ।
आदित्यो बीजं 'ओं' एवं ऋषिव्यार्सोऽथयन्त्रकम् ॥
विद्या सन्ति च भूती द्वे स्मृतिविद्ये क्रमात्तथा ।
अस्य प्रतिफलं दिव्यस्फुरणं ज्ञानमुत्तमम्॥



अथार्त-'व' अक्षर की देवी-'वेदमाता', देवता-'आदित्य', बीज-'ओं', ऋषि-'वेदव्यास', यन्त्र- 'विद्यायन्त्रम्',    विभूति-'स्मृति एवं विद्या' तथा प्रतिफल-'दिव्य स्फुरणा व सद्ज्ञान' है ।


गायत्री को वेदमाता इसलिए कहा गया कि उसके २४ अक्षरों की व्याख्या के लिए चारों वेद बने । ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मन्त्र की ब्रह्म दीक्षा मिली । उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए सामर्थ्य, ज्ञान और विज्ञान की शक्ति और साधनों की आवश्यकता पड़ी । इसके लिए अभीष्ट क्षमता प्राप्त करने के लिए उन्होंने गायत्री का तप किया । तप-बल से सृष्टि बनाई । सृष्टि के सम्पर्क, उपयोग एवं रहस्य से लाभान्वित होने की एक सुनियोजित विधि-व्यवस्था बनाई । उसका नाम वेद रखा । वेद की संरचना की मनःस्थिति और परिस्थिति उत्पन्न्ा करना गायत्री महाशक्ति के सहारे ही उपलब्ध हो सका । इसलिए उस आद्यशक्ति का नाम 'वेदमाता' रखा गया ।
वेद सुविस्तृत हैं । उसे जन साधारण के लिए समझने योग्य बनाने के लिए और भी अधिक विस्तार की आवश्यकता पड़ी । पुराण-कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने चार मुखों से गायत्री के चार चरणों की व्याख्या करके चार वेद बनाये ।
''ॐ भूभुर्वः'' के शीर्ष भाग की व्याख्या से 'ऋग्वेद' बना । ''तत्सवितुवर् रेण्यं'' का रहस्योद्घाटन यजुवेर्द में है । 'भर्गो देवस्य धीमहि' का तत्त्वज्ञान विमर्श 'सामवेद में है ।' 'धियो योनः प्रचोदयात्' की प्रेरणाओं और शक्तियों का रहस्य 'अथवर्वेद' में भरा पड़ा है ।
विशालकाय वृक्ष की सारी सत्ता छोटे से बीज में सन्निहित रहती है । परिपूर्ण मनुष्य की समग्र सत्ता छोटे से शुक्राणु में समाविष्ट देखी जा सकती है । विशालकाय सौरमण्डल के समस्त तत्त्व और क्रिया कलाप परमाणु के नगण्य से घटक में भरे पड़े हैं । ठीक इसी प्रकार संसार में फैले पड़े सुविस्तृत ज्ञान-विज्ञान का समस्त परिकर वेदों में विद्यमान है, और उन वेदों का सारतत्त्व गायत्री मन्त्र में सार रूप में भरा हुआ है । इस लिए गायत्री को ज्ञान-विज्ञान के अधिष्ठात्री वेद वाङ्मय की जन्मदात्री कहा जाता है । शास्त्रों में असंख्य स्थानों पर उसे 'वेदमाता' कहा गया है ।
गायत्री मन्त्र का अवगाहन करने से वह ब्रह्मज्ञान साधक को सरलता पूवर्क उपलब्ध होता है, जिसको हृदयंगम कराने के लिए वेद की संरचना हुई है । गायत्री का माहात्म्य वणर्न करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य ने लिखा है-'गायत्री विद्या' का आश्र्ाय लेने वाला वेदज्ञान का फल प्राप्त करता है । गायत्री के अन्तः करण में वे स्फुरणायें अनायास ही उठती हैं, जिनके लिए वेद विद्या का परायण किया जाता है ।
वेद ज्ञान और विज्ञान दोनों के भण्डार हैं । ऋषिओं के प्र्रेरणाप्रद अर्थ भी हैं और उनके शब्द गुच्छकों में रहस्यमय शक्ति के अदृश्य भंडार भी । वेद में विज्ञान भी भरा पड़ा है । स्वर-शास्त्र के अनुसार इन ऋचाओं का निधार्रित स्वर-विज्ञान के अनुसार पाठ, उच्चारण करने से साधक के अन्तराल का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि उस पर दिव्य प्रेरणा उतर सकें । उसके व्यक्तित्व में ऐसा ओजस् ,तेजस् एवं वर्चस् प्रकट होता है, जिसके सहारे महान् कार्य कर सकने योग्य शौर्य - साहस का परिचय दे सकें । वातावरण में उपयुक्त प्रवाह, परिवतर्न संभव कर सकने के रहस्य वेद मन्त्रों में विद्यमान हैं । मन्त्रों के प्रचण्ड प्रवाह का वणर्न शास्त्रों में मिलता है । इस रहस्यमय प्रक्रिया को वेदमाता की परिधि में सम्मिलित समझा जाना चाहिए ।

वेद ज्ञान, दूरदर्शी दिव्य दृष्टि को कहते हैं । इसे अपनाने वाले का मस्तिष्क निश्चित रूप से उज्ज्वल होता है । चार वेद, चार मंडल मात्र नहीं हैं । उस ज्ञान का विस्तार करने के कारण ब्रह्मा जी के चार मुख हुए । उनकी वैखरी,मध्यमा,परा,पश्यन्ति- चारों वाणी समस्त विश्व को दिशा देने में समथर् हुई । गायत्री का अवगाहन करने वाले चारों ऋषि-सनक,सनन्दन,सनातन,सनत् कुमार वेद भगवान् के प्रत्यक्ष । चार वर्ण, चार आश्रम की परम्परा वेदों की आचार पद्धति है ।
मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय जिसे पाकर मनुष्य कृतकृत्य बनता है, वह वेद ज्ञान है-कामधेनु के चार थन-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की चारों विभूतियों का पयपान करते हैं । साधन चतुष्टय में प्रवृति वेदमाता की चतुविर्ध दिव्य प्रेरणा ही समझी जा सकती है । वेेदमाता की साधना साधक को चार वेदों का आलंबन प्रदान करती और उसे सच्चे अथोर् में वेदवेत्ता, ब्रह्म ज्ञानी बनाती है, तत्त्वज्ञान, सद्ज्ञान,आत्मज्ञान,ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न करती है ।
संक्षेप में वेदमाता के स्वरूप, वाहन आदि का विवेचन इस तरह से हैः-
वेदमाता के एक मुख, चार हाथों में चार वेद है । यह एक ब्राह्मी चेतना से निस्सृत ज्ञान की चार धाराओं का बोध कराता है । कमल आसन-सहस्रार कमल में भरी हुई अनन्त पंखुड़ियों-पतोर्ं का प्रतीक है ।

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